Friday 8 July 2022

शास्त्रों के अनुसार पूजा अर्चना में वर्जित काम

शास्त्रों के अनुसार पूजा अर्चना में वर्जित काम

१) गणेश जी को तुलसी न चढ़ाएं
२) देवी पर दुर्वा न चढ़ाएं
३) शिव लिंग पर केतकी फूल न चढ़ाएं
४) विष्णु को तिलक में अक्षत न चढ़ाएं
५) दो शंख एक समान पूजा घर में न रखें
६) मंदिर में तीन गणेश मूर्ति न रखें
७) तुलसी पत्र चबाकर न खाएं
८) द्वार पर जूते चप्पल उल्टे न रखें
९) दर्शन करके बापस लौटते समय घंटा न बजाएं
१०) एक हाथ से आरती नहीं लेना चाहिए
११) ब्राह्मण को बिना आसन बिठाना नहीं चाहिए
१२) स्त्री द्वारा दंडवत प्रणाम वर्जित है
१३) बिना दक्षिणा ज्योतिषी से प्रश्न नहीं पूछना  चाहिए
१४) घर में पूजा करने अंगूठे से बड़ा शिवलिंग न रखें
१५) तुलसी पेड़ में शिवलिंग किसी भी स्थान पर न हो
१६) गर्भवती महिला को शिवलिंग स्पर्श नहीं करना है
१७) स्त्री द्वारा मंदिर में नारियल नहीं फोडना है
१८) रजस्वला स्त्री का मंदिर प्रवेश वर्जित है
१९) परिवार में सूतक हो तो पूजा प्रतिमा स्पर्श न करें
२०) शिव जी की पूरी परिक्रमा नहीं किया जाता
२१) शिव लिंग से बहते जल को लांघना नहीं चाहिए
२२) एक हाथ से प्रणाम न करें
२३) दूसरे के दीपक में अपना दीपक जलाना नहीं चाहिए
२४.१)चरणामृत लेते समय दायें हाथ के नीचे एक नैपकीन रखें ताकि एक बूंद भी नीचे न गिरे 
२४.२) चरणामृत पीकर हाथों को शिर या शिखा पर न पोछें बल्कि आंखों पर लगायें शिखा पर गायत्री का निवास होता है उसे अपवित्र न करें
२५) देवताओं को लोभान या लोभान की अगरबत्ती का धूप न करें
२६) स्त्री द्वारा हनुमानजी शनिदेव को स्पर्श वर्जित है
२७) कंवारी कन्याओं से पैर पडवाना पाप है
२८) मंदिर परिसर में स्वच्छता बनाए रखने में सहयोग दें
२९) मंदिर में भीड़ होने पर  लाईन पर लगे हुए भगवन्नामोच्चारण करते रहें एवं अपने क्रम से ही  अग्रसर होते रहें
३0) शराबी का भैरव के अलावा अन्य मंदिर प्रवेश वर्जित है
३१) मंदिर में प्रवेश के समय पहले दाहिना पैर और निकास के समय बाया पांव रखना चाहिए
३२)घंटी को इतनी जोर से न बजायें कि उससे कर्कश ध्वनि उत्पन्न हो
३४)हो सके तो मंदिर जाने के लिए एक जोड़ी वस्त्र अलग ही रखें
३५) मंदिर अगर ज्यादा दूर नहीं है तो बिना जूते चप्पल के ही पैदल जाना चाहिए
३६) मंदिर में भगवान के दर्शन खुले नेत्रों से करें और मंदिर से खड़े खड़े वापिस नहीं हों,दो मिनट बैठकर भगवान के रूप माधुर्य का दर्शन लाभ लें
३७) आरती लेने अथवा दीपक का स्पर्श करने के बाद हस्तप्रक्षालन अवश्य करें
इन सभी बताई गई बातें हमारे ऋषि मुनियों से परंपरागत रूप से प्राप्त हुई है।

जय सनातन धर्म

Saturday 20 February 2021

पूजा के समय सिर ढकना जरूरी क्यों है?

पूजा के समय सिर ढकना जरूरी क्यों है?
पौराणिक कथाओं में नायक, उपनायक तथा खलनायक भी सिर को ढंकने के लिए मुकुट पहनते थे। 
यही कारण है कि हमारी परंपरा में सिर को ढकना स्त्री और पुरुषों सबके लिए आवश्यक किया गया था। 
सभी धर्मों की स्त्रियां दुपट्टा या साड़ी के पल्लू से अपना सिर ढंककर रखती थी। 
इसीलिए मंदिर या किसी अन्य धार्मिक स्थल पर जाते समय या पूजा करते समय सिर ढकना जरूरी माना गया था। 
पहले सभी लोगों के सिर ढकने का वैज्ञानिक कारण था। दरअसल विज्ञान के अनुसार सिर मनुष्य के अंगों में सबसे संवेदनशील स्थान होता है। 
ब्रह्मरंध्र सिर के बीचों-बीच स्थित होता है। मौसम के मामूली से परिवर्तन के दुष्प्रभाव ब्रह्मरंध्र के भाग से शरीर के अन्य अंगों पर आतें हैं।

इसके अलावा आकाशीय विद्युतीय तरंगे खुले सिर वाले व्यक्तियों के भीतर प्रवेश कर क्रोध, सिर दर्द, आंखों में कमजोरी आदि रोगों को जन्म देती है। 

इसी कारण सिर और बालों को ढककर रखना हमारी परंपरा में शामिल था। 
इसके बाद धीरे-धीरे समाज की यह परंपरा बड़े लोगों को या भगवान को सम्मान देने का तरीका बन गई। साथ ही इसका एक कारण यह भी है कि सिर के मध्य में सहस्त्रारार चक्र होता है। 
पूजा के समय इसे ढककर रखने से मन एकाग्र बना रहता है। इसीलिए नग्र सिर भगवान के समक्ष जाना ठीक नहीं माना जाता है। 
यह मान्यता है कि जिसका हम सम्मान करते हैं या जो हमारे द्वारा सम्मान दिए जाने योग्य है उनके सामने हमेशा सिर ढककर रखना चाहिए।
इसीलिए पूजा के समय सिर पर और कुछ नहीं तो कम से कम रूमाल ढक लेना चाहिए। 
इससे मन में भगवान के प्रति जो सम्मान और समर्पण है उसकी अभिव्यक्ति होती है।

Saturday 31 October 2020

चिंता



                            चिंता !!


एक राजा की पुत्री के मन में वैराग्य की भावनाएं थीं। जब राजकुमारी विवाह योग्य हुई तो राजा को उसके विवाह के लिए योग्य वर नहीं मिल पा रहा था।

राजा ने पुत्री की भावनाओं को समझते हुए बहुत सोच-विचार करके उसका विवाह एक गरीब संन्यासी से करवा दिया। राजा ने सोचा कि एक संन्यासी ही राजकुमारी की भावनाओं की कद्र कर सकता है।

विवाह के बाद राजकुमारी खुशी-खुशी संन्यासी की कुटिया में रहने आ गई। कुटिया की सफाई करते समय राजकुमारी को एक बर्तन में दो सूखी रोटियां दिखाई दीं। उसने अपने संन्यासी पति से पूछा कि रोटियां यहां क्यों रखी हैं? संन्यासी ने जवाब दिया कि ये रोटियां कल के लिए रखी हैं, अगर कल खाना नहीं मिला तो हम एक-एक रोटी खा लेंगे। संन्यासी का ये जवाब सुनकर राजकुमारी हंस पड़ी। राजकुमारी ने कहा कि मेरे पिता ने मेरा विवाह आपके साथ इसलिए किया था, क्योंकि उन्हें ये लगता है कि आप भी मेरी ही तरह वैरागी हैं, आप तो सिर्फ भक्ति करते हैं और कल की चिंता करते हैं।

सच्चा भक्त वही है जो कल की चिंता नहीं करता और भगवान पर पूरा भरोसा करता है। अगले दिन की चिंता तो जानवर भी नहीं करते हैं, हम तो इंसान हैं। अगर भगवान चाहेगा तो हमें खाना मिल जाएगा और नहीं मिलेगा तो रातभर आनंद से प्रार्थना करेंगे।

ये बातें सुनकर संन्यासी की आंखें खुल गई। उसे समझ आ गया कि उसकी पत्नी ही असली संन्यासी है। उसने राजकुमारी से कहा कि आप तो राजा की बेटी हैं, राजमहल छोड़कर मेरी छोटी सी कुटिया में आई हैं, जबकि मैं तो पहले से ही एक फकीर हूं, फिर भी मुझे कल की चिंता सता रही थी। सिर्फ कहने से ही कोई संन्यासी नहीं होता, संन्यास को जीवन में उतारना पड़ता है। आपने मुझे वैराग्य का महत्व समझा दिया।

अगर हम भगवान की भक्ति करते हैं तो विश्वास भी होना चाहिए कि भगवान हर समय हमारे साथ हैं। उसको (भगवान) हमारी चिंता हमसे ज्यादा रहती हैं।

कभी आप बहुत परेशान हों, कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा हो तो आप आँखें बंद करके विश्वास के साथ उस परमात्मा को पुकारें जिसने आपको यह सुन्दर मनुष्य जीवन दिया है, सच मानिये थोड़ी देर में आपकी समस्या का समाधान मिल जायेगा।

सदैव प्रसन्न रहिये।
जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।

Monday 14 September 2020

अपने आज में जियें


जिस दिन हमारी मौत होती है, हमारा पैसा बैंक में ही रह जाता है।

जब हम जिंदा होते हैं, तो हमें लगता है कि हमारे पास खच॔ करने को पया॔प्त धन नहीं है।

जब हम चले जाते है, तब भी बहुत सा धन बिना खच॔ हुये बच जाता है।

एक चीनी बादशाह की मौत हुई। वो अपनी विधवा के लिये बैंक में 1.9 मिलियन डालर छोड़ कर गया। विधवा ने जवान नोकर से शादी कर ली। उस नोकर ने कहा, मैं हमेशा सोचता था कि मैं अपने मालिक के लिये काम करता हूँ, अब समझ आया कि वो हमेशा मेरे लिये काम करता था।

        सीख?

ज्यादा जरूरी है कि अधिक धन अज॔न कि बजाय अधिक जिया जाय।

• अच्छे व स्वस्थ शरीर के लिये प्रयास करिये।
• मँहगे फोन के 70% फंक्शन अनोपयोगी रहते है।
• मँहगी कार की 70% गति का उपयोग नहीं हो पाता।
• आलीशान मकानो का 70% हिस्सा खाली रहता है।
• पूरी अलमारी के 70% कपड़े पड़े रहते हैं।
• पुरी जिंदगी की कमाई का 70% दूसरो के उपयोग के लिये छूट जाता है।
• 70% गुणो का उपयोग नहीं हो पाता।

तो 30% का पूण॔ उपयोग कैसे हो!

• स्वस्थ होने पर भी निरंतर चेक-अप करायें।
• प्यासे न होने पर भी अधिक पानी पियें।
• जब भी संभव हो, अपना अहं त्यागें ।
• शक्तिशाली होने पर भी सरल रहेँ।
• धनी न होने पर भी परिपूण॔ रहें।

बेहतर जीवन जीयें!

काबू में रखें - प्रार्थना के वक़्त अपने दिल को!
काबू में रखें - खाना खाते समय पेट को!
काबू में रखें - किसी के घर जाएं तो आँखों को!
काबू में रखें - महफिल मे जाएं तो जबान को!
काबू में रखें - पराया धन देखें तो लालच को

भूल जाएं - अपनी नेकियों को!
भूल जाएं - दूसरों की गलतियों को!
भूल जाएं - अतीत के कड़वे संस्मरणों को!

छोड दें - दूसरों को नीचा दिखाना!
छोड दें - दूसरों की सफलता से जलना!
छोड दें - दूसरों के धन की चाह रखना!
छोड दें - दूसरों की चुगली करना!
छोड दें - दूसरों की सफलता पर दुखी होना. 

यदि आपके फ्रिज में खाना है, बदन पर कपड़े हैं, घर के ऊपर छत है और सोने के लिये जगह है, तो दुनिया के 75% लोगों से ज्यादा धनी हैं।

यदि आपके पर्स में पैसे हैं और आप कुछ बदलाव के लिये कही भी जा सकते हैं जहाँ आप जाना चाहते हैं, तो आप दुनिया के 18% धनी लोगों में शामिल हैं।

यदि आप आज पूर्णतः स्वस्थ होकर जीवित हैं, तो आप उन लाखों लोगों की तुलना में खुशनसीब हैं जो इस हफ्ते जी भी न पायें।

जीवन के मायने दुःखों की शिकायत करने में नहीं हैं, बल्कि हमारे निर्माता को धन्यवाद करने के अन्य हजारों कारणों में है!


Monday 31 August 2020

पंच तत्वों की साधना

पंच तत्वों की साधना

पंच तत्वों के द्वारा इस समस्त सृष्टि का निर्माण हुआ है। मनुष्य का शरीर भी पाँच तत्वों से ही बना हुआ है। इन तत्वों का जब तक शरीर में उचित भाग रहता है तब तक स्वस्थता रहती है। जब कमी आने लगती है तो शरीर निर्बल, निस्तेज, आलसी, अशक्त तथा रोगी रहने लगता है। स्वास्थ्य को कायम रखने के लिए यह आवश्यक है कि तत्वों को उचित मात्रा में शरीर में रखने का हम निरंतर प्रयत्न करते रहें और जो कमी आवे उसे पूरा करते रहें। नीचे कुछ ऐसे अभ्यास बताये जाते हैं जिनको करते रहने से शरीर में तत्वों की जो कमी हो जाती है उसकी पूर्ति होती रह सकती है और मनुष्य अपने स्वास्थ्य को अच्छा बनाये रहते हुए दीर्घ जीवन प्राप्त कर सकता है।

पृथ्वी तत्व- पृथ्वी तत्व में विषों को खींचने की अद्भुत शक्ति है। मिट्टी की टिकिया बाँध कर फोड़े तथा अन्य अनेक रोग दूर किये जा सकते हैं। पृथ्वी में से एक प्रकार की गैस हर समय निकलती रहती है। इसको शरीर में आकर्षित करना बहुत लाभदायक है।

प्रतिदिन प्रातःकाल नंगे पैर टहलने से पैर और पृथ्वी का संयोग होता है। उससे पैरों के द्वारा शरीर के विष खिच कर जमीन में चले जाते हैं और ब्राह्ममुहूर्त में जो अनेक आश्चर्यजनक गुणों से युक्त वायु पृथ्वी में से निकलती है उसको शरीर सोख लेता है। प्रातःकाल के सिवाय यह लाभ और किसी समय में प्राप्त नहीं हो सकता। अन्य समयों में तो पृथ्वी से हानिकारक वायु भी निकलती है जिससे बचने के लिए जूता आदि पहनने की जरूरत होती है।

प्रातःकाल नंगे पैर टहलने के लिए कोई स्वच्छ जगह तलाश करनी चाहिए। हरी घास भी वहाँ हो तो और भी अच्छा। घास के ऊपर जमी हुई नमी पैरों को ठंडा करती है। वह ठंडक मस्तिष्क तक पहुँचती है। किसी बगीचे, पार्क, खेल या अन्य ऐसे ही साफ स्थान में प्रति दिन नंगे पाँवों कम से कम आधा घंटा नित्य टहलना चाहिए। साथ ही यह भावना करते चलना चाहिए “पृथ्वी की जीवनी शक्ति को मैं पैरों द्वारा खींच कर अपने शरीर में भर रहा हूँ और मेरे शरीर के विषों को पृथ्वी खींच कर मुझे निर्मल बना रही है।” यह भावना जितनी ही बलवती होगी, उतना ही लाभ अधिक होगा।

हफ्ते में एक दो बार स्वच्छ भुरभुरी पीली मिट्टी या शुद्ध बालू लेकर उसे पानी से गीली करके शरीर पर साबुन को तरह मलना चाहिए। कुछ देर तक उस मिट्टी को शरीर पर लगा रहने देना चाहिए और बाद में स्वच्छ पानी से स्नान करके मिट्टी को पूरी तरह से छुड़ा देना चाहिए। इस मृतिका स्नान से शरीर के भीतरी और चमड़े के विष खिंच जाते हैं और त्वचा कोमल एवं चमकदार बन जाती है।

जल तत्व- मुरझाई हुई चीजें जल के द्वारा हरी हो जाती हैं। जल में बहुत बड़ी सजीवता है। पौधे में पानी देकर हरा भरा रखा जाता है, इसी प्रकार शरीर को स्नान के द्वारा सजीव रखा जाता है। मैल साफ करना ही स्नान का उद्देश्य नहीं हैं वरन् जल में मिली हुई विद्युत शक्ति, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन आदि अमूल्य तत्वों द्वारा शरीर को सींचना भी है। इसलिए ताजे, स्वच्छ, सह्य ताप के जल से स्नान करना कभी न भूलना चाहिए। वैसे तो सवेरे का स्नान ही सर्वश्रेष्ठ है पर यदि सुविधा न हो तो दोपहर से पहले स्नान जरूर कर लेना चाहिए। मध्याह्न के बाद का स्नान लाभदायक नहीं होता। हाँ गर्मी के दिनों में संध्या को भी स्नान किया जा सकता है।

प्रातःकाल सोकर उठते ही वरुण देवता की उपासना करने का एक तरीका यह है कि कुल्ला करने के बाद स्वच्छ जल का एक गिलास पीया जाए। इसके बाद कुछ देर चारपाई और इधर उधर करवटें बदलनी चाहिए। इसके बाद शौच जाना चाहिए। इस उपासना का वरदान तुरन्त मिलता है। खुल कर शौच होता है और पेट साफ हो जाता है। यह ‘उषापान’ वरुण देवता की प्रत्यक्ष आराधना है।

जब भी आपको पानी पीने की आवश्यकता पड़े, दूध की तरह घूँट घूँट कर पानी पियें। चाहे कैसी ही प्यास लग रही हो एक दम गटापट न पी जाना चाहिए। हर एक घूँट के साथ यह भावना करते जाना चाहिए-”इस अमृत तुल्य जल में जो मधुरता और शक्ति भरी हुई है, उसे मैं खींच रहा हूँ।” इस भावना के साथ पिया हुआ पानी, दूध के समान गुणकारक होता है। पानी पीने में कंजूसी न करनी चाहिए। भोजन करते समय अधिक पानी न पियें इसका ध्यान रखते हुए अन्य किसी भी समय की प्यास को जल द्वारा समुचित रीति से पूरा करना चाहिए। व्रत के दिन तो खास तौर से कई बार काफी मात्रा में पानी पीना चाहिए।

अग्नि तत्व - जीवन को बढ़ाने ओर विकसित करने का काम अग्नि तत्व का है जिसे गर्मी कहते हैं। गर्मी न हो तो कोई वनस्पति एवं जीव विकसित नहीं हो सकता। गर्मी के केन्द्र सूर्य उपासना और अग्नि उपासना एक ही बात है।

स्नान करके गीले शरीर से ही प्रातःकालीन सूर्य के दर्शन करने चाहिए और जल का अर्घ्य देना चाहिए। पानी में बिजली का बहुत जोर रहता है। बादलों के जल के कारण आकाश में बिजली चमकती है। इलेक्ट्रिसिटी के तारों में भी वर्षा ऋतु में बड़ी तेजी रहती है। पानी में बिजली की गर्मी को खींचने की विशेष शक्ति है। इसलिए शरीर को तौलिया से पोंछने के बाद नम शरीर से ही नंगे बदन सूर्य नारायण के सामने जाकर अर्घ्य देना चाहिए। यदि नदी, तालाब, नहर पास में हो कमर तक जल में खड़े होकर अर्घ्य देना चाहिए। अर्घ्य लोटे से भी दिया जा सकता है और अंजलि से भी, जैसी सुविधा हो कर लेना चाहिए। सूर्य के दर्शन के पश्चात् नेत्र बन्द करके उनका ध्यान करना चाहिए और मन ही मन यह भावना दुहरानी चाहिए-”भगवान सूर्य नारायण का तेज मेरे शरीर में प्रवेश करके नस नस को दीप्तिमान सतेज और प्रफुल्लित कर रहे हैं और मेरे अंग प्रत्यंग में स्फूर्ति उत्पन्न हो रही है।” स्नान के बाद इस क्रिया को नित्य करना चाहिए।

हो सके तो रविवार का व्रत भी करना चाहिये। यदि पूरा व्रत न हो सके तो एक समय, बिना नमक का भोजन करने से भी सूर्य का व्रत माना जा सकता है। इससे भी मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार मनुष्य के तेज में वृद्धि होती है और नेत्र रोग, रक्त विकार तथा चर्म रोग विशेष रूप से दूर होते हैं।

वायु तत्व - शरीर को पोषण करने वाले तत्वों का थोड़ा भाग भोजन से प्राप्त होता है, अधिकाँश भाग की पूर्ति वायु द्वारा होती है। जो वस्तुएं स्थूल हैं वे सूक्ष्म रूप से वायु मंडल में भी भ्रमण करती रहती हैं। योरोप अमेरिका में ऐसी गायें हैं जिनकी खुराक 24 सेर है परन्तु दिन भर में दूध 28 सेर देती हैं। यह दूध केवल स्थूल भोजन से ही नहीं बनता वरन् वायु में घूमने वाले अदृश्य तत्वों के भोजन से भी प्राप्त होता है। बीमार तथा योगी बहुत समय तक बिना खाये पिये भी जीवित रहते हैं। उनका स्थूल भोजन बन्द है तो भी वायु द्वारा बहुत सी खुराकें मिलती रहती हैं। यही कारण है कि वायु द्वारा प्राप्त होने वाले ऑक्सीजन आदि अनेक प्रकार के भोजन बन्द हो जाने पर मनुष्य की क्षण भर में मृत्यु हो जाती है। बिना वायु के जीवन संभव नहीं। आबोहवा का जितना स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है उतना भोजन का नहीं। डॉक्टर लोग क्षय आदि असाध्य रोगियों को पहाड़ों पर जाने की सलाह देते हैं क्योंकि वे समझते हैं कि बढ़िया दवाओं की अपेक्षा उत्तम वायु में अधिक पोषक तत्व मौजूद हैं।

अनन्त आकाश में से वायु द्वारा प्राणप्रद तत्वों को खींचने के लिए भारत के तत्व दर्शी ऋषियों ने प्राणायाम की बहुमूल्य प्रणाली का निर्माण किया है। मोटी बुद्धि से देखने में प्राणायाम एक मामूली सी फेफड़ों की कसरत मालूम पड़ती है और इससे इतना ही लाभ प्रतीत होता है कि फेफड़े मजबूत बनें और रक्त शुद्ध हो किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से इस क्रिया द्वारा अनिर्वचनीय लाभ प्रतीत हुए हैं। बात यह है कि प्राणायाम द्वारा अखिल आकाश में से अत्यन्त बहुमूल्य पोषक पदार्थों को खींचकर शरीर को पुष्ट बनाया जा सकता है।

स्नान करने के उपरान्त किसी एकान्त स्थान में जाइए। समतल भूमि पर आसन बिछा कर पद्मासन से बैठ जाइए। मेरुदंड बिलकुल सीधा रहे। नेत्रों को अधखुला रखिए। अब धीरे धीरे नाक द्वारा साँस खींचना आरम्भ कीजिए और दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ भावना कीजिए कि “विश्वव्यापी महान प्राण भण्डार में से मैं स्वास्थ्यदायक प्राणतत्व साँस के साथ खींच रहा हूँ और वह प्राण मेरे रक्त प्रवाह तथा समस्त नाड़ी तन्तुओं में प्रवाहित होता हुआ सूर्यचक्र में (आमाशय का वह स्थान जहाँ पसलियाँ और पेट मिलते हैं) इकट्ठा हो रहा है। इस भावना को ध्यान द्वारा चित्रवत् मूर्तिमान रूप से देखने का प्रयत्न करना चाहिए। जब फेफड़ों को वायु से अच्छी तरह भर लो तो दस सैकिण्ड तक वायु को भीतर रोके रहो। रोकने के समय ऐसा ध्यान करना चाहिए कि “प्राणतत्व मेरे अंग प्रत्यंगों में पूरित हो रहा है।” अब वायु को नासिका द्वारा ही धीरे धीरे बाहर निकालो और निकालते समय ऐसा अनुभव करो कि “शरीर के सारे दोष, रोग और विष वायु के साथ साथ निकाल बाहर किये जा रहे हैं।”

उपरोक्त प्रकार से आरम्भ में दस प्राणायाम करने चाहिए फिर धीरे धीरे बढ़ाकर सुविधानुसार आधे घंटे तक कई बार इन प्राणायामों को किया जा सकता है। अभ्यास पूरा करने के उपरान्त आपको ऐसा अनुभव होगा कि रक्त की गति तीव्र हो गई है और सारे शरीर की नाड़ियों में एक प्रकार की स्फूर्ति, ताजगी और विद्युत शक्ति दौड़ रही है। इस प्राणायाम को कुछ दिन लगातार करने से अनेक शारीरिक और मानसिक लाभों का स्वयं अनुभव होगा।

आकाश तत्व - आकाश का अर्थ शून्य या पोल समझा जाता है। पर यह शून्य या पोल खाली स्थान नहीं है। ईथर तत्व (Ethar) हर जगह व्याप्त है। इस ईथर को ही आकाश कहते हैं। रेडियो द्वारा ब्रॉडकास्ट किये हुए शब्द ईथर तत्व में लहरों के रूप में चारों ओर फैल जाते हैं। रेडियो यंत्र की सहायता से उन लहरों को पकड़ कर उन शब्दों को दूर दूर स्थानों में भी सुना जाता है। केवल शब्द ही नहीं विचार और विश्वास भी आकाश में (ईथर में) लहरों के रूप में बहते रहते हैं। जैसी ही हमारी मनोभूमि होती है उसी के अनुरूप विचार इकट्ठे होकर हमारे पास आ जाते हैं। एक ही समय में दिल्ली, बम्बई, लाहौर, लन्दन, न्यूयार्क आदि से विभिन्न प्रोग्राम ब्रॉडकास्ट होते हैं परन्तु आपके रेडियो सैट की सुई जिस स्टेशन के नम्बर पर लगी होगी उसी का प्रोग्राम सुनाई पड़ेगा और अन्य प्रोग्राम अपने रास्ते चले जायेंगे। इसी प्रकार हमारी मनोभूमि, रुचि, इच्छा जैसी होती हैं उसी के अनुसार आकाश में से विचार, प्रेरणा और प्रोत्साहन प्राप्त होते हैं। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक असंख्य प्राणियों द्वारा जो असंख्य प्रकार के विचार अब तक किये गये हैं वे नष्ट नहीं हुए वरन् अब तक मौजूद हैं, आकाश में उड़ते फिरते हैं। यह विचार अपने अनुरूप भूमि जहाँ देखते हैं वहीं सिमट सिमट कर इकट्ठे होने लगते हैं। कोई व्यक्ति बुरे विचार करता है तो उसी के अनुरूप असंख्य नई बातें उसे अपने आप सूझ पड़ती हैं, इसी प्रकार भले विचारों के बारे में भी है हम जैसी अपनी मनोभूमि बनाते हैं उसी के अनुरूप विचार और विश्वासों का समूह हमारे पास इकट्ठा हो जाता है और यह तो निश्चित ही है कि विचारो की प्रेरणा से ही कार्य होते हैं। जो जैसा सोचता है वह वैसे ही काम भी करने लगता है।

आकाश तत्व में से लाभदायक सद्विचारों को आकर्षित करने के लिए प्राणायाम के बाद का समय ठीक है। एकान्त स्थान में किसी नरम बिछाने पर चित्त होकर लेट जाओ, या आराम कुर्सी पर पड़े रहो अथवा मसंद या दीवार का सहारा लेकर शरीर को बिलकुल ढीला कर दो। नेत्रों को बन्द करके अपने चारों ओर नीले आकाश का ध्यान करो। नीले रंग का ध्यान करना मन को बड़ी शान्ति प्रदान करता है। जब नीले रंग का ध्यान ठीक हो जाए तब ऐसी भावना करनी चाहिए कि ‘निखिल नील आकाश में फैले हुए सद्विचार, सद्विश्वास, सत्प्रभाव चारों ओर से एकत्रित होकर मेरे शरीर में विद्युत किरणों की भाँति प्रवेश कर रहे हैं और उनके प्रभाव से मेरा अन्तःकरण दया, प्रेम, परोपकार, कर्तव्यपरायणता, सेवा, सदाचार, शान्ति, विनय, गंभीरता, प्रसन्नता, उत्साह, साहस, दृढ़ता, विवेक आदि सद्गुणों से भर रहा है।” यह भावना खूब मजबूती और दिलचस्पी के साथ मनोयोग तथा श्रद्धा पूर्वक होनी चाहिए। जितनी ही एकाग्रता और श्रद्धा होगी उतना ही इससे लाभ होगा।

आकाश तत्व की इस साधना के फलस्वरूप अनेक सिद्ध, महात्मा, सत्पुरुष, अवतार तथा देवताओं की शक्तियाँ आकर अपने प्रभाव डालती हैं और मानसिक दुर्गुणों को दूर करके श्रेष्ठतम सद्भावनाओं का बीज जमाती हैं। सद्भावों के कारण ही यह लोक और परलोक आनन्दमय बनता है यह तथ्य बिलकुल निश्चित और स्वयं सिद्ध है।

उपरोक्त पाँच तत्वों की साधनाएं देखने में छोटी और सरल हैं तो भी इनका लाभ अत्यन्त विषद है। नित्य पाँचों तत्वों का जो साधन कर सकते हैं। वे इन सबको करें जो पाँचों को एक साथ न कर सकते हों वे एक एक दो दो करके किया करें। कौन सा साधन पहले कौन सा पीछे यह भी अपनी अपनी सुविधा के ऊपर निर्भर है। जिन्हें प्रतिदिन करने की सुविधा न हो वे सप्ताह में एक दो दिन के लिए भी अपना कार्यक्रम निश्चित रूप से चलाने का प्रयत्न करें। रविवार के व्रत के दिन भी इन पाँचों साधनों को पूरा करते रहें तो भी बहुत लाभ होगा। नित्य प्रति नियमित रूप से अभ्यास करने वालों को तो शारीरिक और मानसिक लाभ इससे बहुत अधिक होता है।

Friday 10 April 2020

आखिर क्यों भृगु ऋषि में मारी भगवान विष्णु के लात - पौराणिक कथा

आखिर क्यों भृगु ऋषि में मारी भगवान विष्णु के लात - पौराणिक कथा

दुर्वासा मुनि की बात छोड़ दी जाए तो यह कहना गलत नही होगा कि ऋषि-मुनि जल्दी नाराज नहीं होते थे। लेकिन एकबार जब खफा हो गए तो बिना शाप दिए शांत भी नहीं होते थे। लेकिन भृगु ऋषि ने जो किया वह तो हतप्रभ कर देने वाली बात थी।

भृगु ऋषि ने क्षीरसागर में शेषशैय्या पर सोते हुए भगवान विष्णु की छाती पर अपने पैर से जोरदार प्रहार किया था। महान ग्रंथ ’भृगु संहिता’ के प्रतिष्ठित रचयिता, प्रबुद्ध चिंतक और महाज्ञानी भृगु ऋषि ने ऐसा किया, तो जरूर कोई-न-कोई विशेष बात रही होगी। आइए जानते हैं इस रोचक प्रसंग के बारे में।

एकबार धरती पर पावन सरस्वती नदी के तट पर सभी ऋषियों-मुनियों का विशाल सत्संग हुआ। विभिन्न विषयों और मुद्दों पर व्यापक वाद-विवाद और चर्चा-परिचर्चा हुई। ऐसे में एक प्रसंग यह भी उठा कि त्रिदेवों यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश में श्रेष्ठ कौन है?

काफी तर्क-वितर्क के बाद भी जब इस प्रश्न का समाधान न मिला तो सभा ने ऋषियों में श्रेष्ठ भृगु ऋषि को यह चुनौतीपूर्ण दायित्व सौंपा कि वे पता लगाएं त्रिदेवों में से श्रेष्ठ कौन है।

भृगु ऋषि जगत-स्रष्टा ब्रह्मा के मानस पुत्र थे। अपने लक्ष्य-संधान के लिए भृगु सबसे पहले अपने पिता के ही पास गए। उन्होंने ब्रह्माजी की परीक्षा मानस उपाय से ही लेने का निर्णय किया।

जब भृगु अपने पिता के पास पहुंचे तो न कोई अभिवादन किया और न ही कोई आदर-सत्कार दिखाया। भृगुजी की इस अशिष्टता को देखकर ब्रह्माजी क्रोधित हो उठे और शाप देने को उद्धत हो गए।

लेकिन जब ब्रह्माजी शाप देने ही वाले थे कि तभी उन्हें स्मरण हुआ कि ये तो मेरा ही पुत्र है। इसलिए उन्होंने क्रोध को पी लिया। हालांकि भृगुजी से यह छिप न सका और उन्होंने ब्रह्माजी से वहां से प्रस्थान की आज्ञा ले ली।

इसके बाद भृगु ऋषि कैलाश पर्वत भगवान शिव के पास गए। भृगु ऋषि को आया देख शिव ने अपने स्थान से उठकर उनको आदर दिया। लेकिन भृगु तो कुछ सोचकर आए थे, इसलिए वे भला-बुरा कहकर शिव का अपमान करने लगे। वे कहने लगे कि आप तो रहने ही दीजिए महादेव, आप मुझे न छुएं। आपकी वेषभूषा गंदी है, पता नहीं आप नहाते भी है या नहीं।

इसपर महादेव शिव काफी क्रोधित हो उठे और उन्होंने त्रिशूल उठा लिया। लेकिन ऐन मौके पर देवी पार्वती ने उन्हें रोक लिया और ब्रह्माजी के पुत्र होने के नाते प्राणदान की विनती की। तब जाकर शिव का क्रोध शांत हो पाया।

अब वैकुण्ठ के स्वामी विष्णु की बारी थे। जब भृगु वैकुण्ठ पहुंचे तब विष्णु शेषशैय्या पर निद्रा में लीन थे। लक्ष्मी देवी उनकी सेवा में रत थी। उसी स्थिति में भृगुजी आगे बढ़े और अपने पांव से विष्णुजी के छाती पर प्रहार किया।

विष्णुजी की निद्रा-भंग हो गयी, लेकिन गुस्सा होने के बजाए उन्होंने भृगुजी से कहा, क्षमा करें ऋषिवर! मैं आपको देख न पाया। मेरी छाती बड़ी कठोर है, कहीं आप के पांव में चोट तो नहीं लगी?

भृगु ऋषि गदगद हो उठे। उन्होंने तीनों देवो से क्षमायाचना कर पूरा वृतांत सुनाया। इस प्रकार यह निर्णय हो गया कि तीनों देवों में श्रेष्ठ कौन हैं।

लेकिन लक्ष्मी अपने पति का अपमान सहन ना कर सकी और समस्त ब्राह्मण कुल को निर्धनता का श्राप दे दिया ।

Monday 6 April 2020

प्रेरणादायक कहानियां

 प्रेरणादायक कहानियां -


1.अंधा और लालटेन


एक गांव में एक दिव्यांग - दृष्टिहीन (अंधा) व्यक्ति रहता था। वह रात में जब भी बाहर जाता, एक जली हुई लालटेन हमेशा अपने साथ रखता। एक रात वह अपने दोस्त के घर से भोजन कर वापस अपने घर लौट रहा था। इस बार भी उसके साथ हमेशा की तरह एक जली हुई लालटेन थी। वापस लौटते समय रास्ते में कुछ शरारती लड़कों ने उसके हाथ में लालटेन देखी तो उस पर हंसने लगे और उसका मजाक उड़ाते हुए कहा- अरे! देखो- देखो अंधा लालटेन लेकर जा रहा है। अंधे को लालटेन का क्या काम?

उनकी बात सुनकर अंधा व्यक्ति विनम्रता से बोला- ‘सही कहते हो भैया, मैं तो अंधा हूं, देख नहीं सकता। मेरी दुनिया में तो हमेशा अंधेरा ही रहा है। मुझे लालटेन का क्या काम। मेरी आदत तो अंधेरे में जीने की ही है, लेकिन आप जैसे आंखों वाले लोगों को तो अंधेरे में जीने की आदत नहीं होती। आप लोगों को अंधेरे में देखने में समस्या हो सकती है। कहीं आप जैसे लोग मुझे अंधेरे में ना देख पाए और धक्का दे दिया तो मुझ बेचारे का क्या होगा। इसलिए यह लालटेन लेकर चलता हूं ताकि आप अंधेरे में अंधे को देख सकें। अंधे व्यक्ति की बात सुनकर वह लड़के शर्मिंदा हो गए और उस से माफी मांगने लगे उन्होंने तय किया कि अब भविष्य में कभी किसी दिव्यांग का मजाक नहीं बनाएंगे।

*कहानी का सबक- कभी किसी को नीचा दिखाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और अच्छी तरह सोच विचार करके ही किसी पर टिप्पणी करनी चाहिए।


*2. रोशनी की बचत

एक बार प्रसिद्ध लेखक जॉन मुरे अपने लेखन में व्यस्त थे। तभी दो महिलाएं जन-कल्याण से संस्था के लिए उनसे चंदा मांगने आईं। अपना लेखन कार्य बीच में छोड़ने के बाद जॉन मुरे ने वहां जल रही दो मोमबत्तियों में से एक को बुझा दिया। यह देखकर उनमें से एक महिला बुदबुदाई, “यहां कुछ मिलने वाला नहीं है।”

जॉन मुरे को जब उन महिलाओं के आने के उद्देश्य का पता चला, तो उन्होंने खुशी-खुशी से 100 डॉलर उन्हें दे दिये।महिलाओं के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, उनमें से एक बोली-“हमें तो आपसे एक पैसा भी पाने की उम्मीद नहीं थी, क्योंकि आपने हमारे आते ही एक मोमबत्ती बुझा दी थी।”

जॉन मुरे ने उत्तर दिया, “अपनी इसी बचत की आदत के कारण ही मैं आपको 100 डॉलर देने में समर्थ हुआ हूं। मेरे विचार से आपसे बातचीत करने के लिए एक मोमबत्ती का प्रकाश ही काफी है।” महिलाएं बचत के महत्व को समझ चुकी थीं।

*कहानी का सबक- बचत करने और कंजूसी करने में फर्क है। हमें हमेशा सोच समझ कर खर्च करना चाहिए तभी हम अपने देश और समाज का भला कर सकते हैं।


*3. उम्मीद की रोशनी

एक बार की बात है, एक घर मे जल रहे पांच दीये आपस में बात कर रहे थे। उत्साह नाम के पहले दीये ने कहा – ‘इतना जलकर भी मेरी रोशनी की लोगों को कोई कद्र नहीं है, इससे तो बेहतर यही होगा कि मैं बुझ जाऊं ‘ और वह दीया निराश हो बुझ गया। कुछ देर बाद शांति का प्रतीक दूसरा दीया भी लोगों द्वारा फैलाई जा रही अशांति के बारे में सोच कर बुझ गया। अब बारी थी हिम्मत नाम के तीसरे दीये की, अपने दो साथियों की दशा देखकर उसकी हिम्मत भी जवाब दे गई और वह भी बुझ गया।

उत्साह, शांति और हिम्मत का हाल देख समृद्धि का प्रतीक चौथा दीया भी बुझ गया। अब केवल पांचवां दीया जो सबसे छोटा था, अकेला जल कर रोशनी फैला रहा था। तभी घर में एक लड़का आता है। वहां जलता दीया देख वह खुशी नाचने लगा और फिर उस एक दीये से बाकी के चार दीये फिर से जला देता है। पांचवां दीया उम्मीद का दीया था। उत्साह, शांति, हिम्मत और समृद्धि के जाने के बाद भी उम्मीद को जिन्दा रखे हुए था। कहते हैं कि उम्मीद पर दुनिया कायम है। दुनिया में तमाम दुखों और तकलीफों में भी उम्मीद कायम रखे, इसका साथ कभी न छोड़ें।

*कहानी का सबक- अगर उम्मीद का दीया रोशन है तो सब कुछ खत्म होने के बाद भी एक नई शुरुआत की जा सकती है।


*4. ईमानदारी ही महानता है

मगध साम्राज्य में आचार्य चाणक्य की बुद्धि और सूझबूझ से हर कोई प्रभावित था। इतने बड़े प्रांत का संचालक होने के बाद भी चाणक्य साधारण जीवन जीते हुए झोपड़ी में रहते थे। एक बार एक विदेशी यात्री चाणक्य की प्रशंसा सुनकर उनसे मिलने आ पहुंचा। सांझ ढल चुकी थी और चाणक्य लेखन कार्य कर रहे थे। वहां तेल का एक दीपक जल रहा था। चाणक्य ने आगंतुक को आसान पर बैठने का अनुरोध किया। फिर वहां जल रहे दीपक को बुझा कर अन्दर गए और दूसरा दीपक को जला कर ले आए। उनके ऐसा करने पर विदेशी व्यक्ति समझ नहीं सका कि जलते दीपक को बुझाकर , बुझे हुए दूसरे दीपक को जलाना, कैसी बुद्धिमानी हो सकती है ? उसने संकोच करते हुए चाणक्य से पूछा - यह क्या खेल है ? जलते दीपक को बुझाना और बुझे दीपक को जलाना ! जला था तो बुझाया ही क्यों और बुझाया तो जलाया ही क्यों ? रहस्य क्या है ?

चाणक्य ने मुस्कुराते हुए कहा इतनी देर से मैं अपना निजी कार्य कर रहा था, इसलिए मेरे अर्जित किए धन से खरीदे तेल से यह दीपक जल रहा था, अब आप आए है तो मुझे राज्य कार्य में लगना होगा, इसलिए यह दीपक जलाया है क्योंकि इसमें राजकोष से मिले धन का तेल है। आगंतुक चाणक्य की ईमानदारी देख बड़ा प्रभावित हुआ।

*कहानी का सबक- हम चाहे कितने भी प्रभावशाली क्यों न बन जाएं, ईमानदारी का एक गुण हमेशा काम आता है और इसी से व्यक्ति का पूरा चरित्र बनता है।


*5. अपना दीपक बनो

यह कहानी भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को सुनाई थी - एक बार की बात है, दो यात्री धर्मशाला में ठहरे हुए थे। सांझ का समय था और वहां पर दीये बेचने वाला एक कुम्हार आया। एक यात्री ने उससे दीया खरीद लिया। वहीं, दूसरे ने सोचा कि, इसने अपने लिए खरीद लिया है तो मैं भी इसके साथ ही चल पडूंगा, तो मुझे पैसा खर्च करके अलग दीया खरीदने की क्या जरूरत है।

कुछ देर बाद अपना दीया जलाकर पहला यात्री रात में अपने अगले ठिकाने की ओर चल पड़ा, दूसरा भी उसके साथ निकल पड़ा। थोड़ी दूर चलने पर दीया खरीदने वाला यात्री एक ओर मुड़ गया। लेकिन, दूसरे यात्री को विपरीत दिशा में जाना था। इसलिए वह वहीं रह गया और दीया न होने के कारण बिना उजाले किसी भी दिशा में आगे नहीं जा पाया।

*कहानी का सबक - महात्मा बुद्ध ने कहा कि- भिक्षुओं! अपना दीपक खुद बनो। आपके कार्य ही आपका दीपक हैं, वही आपको मार्ग दिखाएंगे।


*6. बुढ़िया की सुई
एक बार गांव में एक बुढ़िया रात के अँधेरे में अपनी झोपड़ी के बहार कुछ ढूंढ़ रही थी। तभी गांव के ही एक व्यक्ति की नजर उस पर पड़ी तो उसने पूछा , “अम्मा इतनी रात में रोड लाइट के नीचे क्या ढूंढ रही हो ?” इस पर बुढ़िया ने जवाब दिया कि, "कुछ नहीं मेरी सुई गुम हो गयी है बस वही खोज रही हूं।" फिर क्या था, वो व्यक्ति भी महिला के साथ में सुई खोजने लगा। कुछ देर में और भी लोग इस खोज अभियान में शामिल हो गए और देखते- देखते लगभग पूरा गांव ही इकट्‌ठा हो गया।

सभी बड़े ध्यान से सुई खोजने में लगे थे कि तभी किसी ने बुढ़िया से पूछा ,” अरे अम्मा ! ज़रा ये तो बताओ कि सुई गिरी कहां थी?” इस पर बूढ़ी महिला ने कहा” बेटा , सुई तो झोपड़ी के अन्दर गिरी थी।” ये सुनते ही सभी क्रोधित हो गए और भीड़ में से किसी ने ऊंची आवाज में कहा , ” कमाल करती हो अम्मा ,हम इतनी देर से सुई यहां ढूंढ रहे हैं, जबकि सुई अन्दर झोपड़ी में गिरी थी , आखिर सुई अंदर खोजने की बजाए बाहर क्यों खोज रही हो ?” बुढ़िया बोली” क्योंकि रोड पर लाइट जल रही है…इसलिए .”,.

*कहानी का सबक- ऐसा ही हम भी सोचते हैं कि लाइट कहां जल रही है, हम ये नहीं सोचते कि हमारा दिल क्या कह रहा है ; हमारी सुई कहां गिरी है।


*7. रोशनी की किरण

रोहित आठवीं कक्षा का छात्र था। वह बहुत आज्ञाकारी था, और हमेशा दूसरों की मदद के लिए तैयार रहता था। वह शहर के एक साधारण मोहल्ले में रहता था, जहां बिजली के खम्भे तो लगे थे पर उन पर लगी लाइट सालों से खराब थी और बार-बार कंप्लेंट करने पर भी कोई उन्हें ठीक नहीं करता था। रोहित अक्सर सड़क पर आने-जाने वाले लोगों को अँधेरे के कारण परेशान होते देखता , उसके दिल में आता कि वो कैसे इस समस्या को दूर करे। इसके लिए वो जब अपने माता-पिता या पड़ोसियों से कहता तो सब इसे सरकार और प्रशासन की लापरवाही कह कर टाल देते। एक दिन रोहित कहीं से एक लम्बा सा बांस और बिजली का तार लेकर अपने कुछ दोस्तों की मदद से उसे अपने घर के सामने लगाकर उस पर एक बल्ब लगाने लगा।

आस-पड़ोस के लोगों ने देखा तो पूछा, ” अरे तुम ये क्या कर रहे हो ?” “मैं अपने घर के सामने एक बल्ब जलाने का प्रयास कर रहा हूँ ?” , रोहित बोला। इस पर पड़ोसियों ने कहा “अरे इससे क्या होगा , अगर तुम एक बल्ब लगा भी लोगे तो पूरे मोहल्ले में प्रकाश थोड़े ही फैल जाएगा, आने जाने वालों को तब भी परेशानी उठानी ही पड़ेगी !” रोहित बोला , कि इससे कम से कम मेरे घर के सामने से जाने वाले लोगों को परेशानी नहीं होगी” और ऐसा कहते हुए उसने एक बल्ब वहां टांग दिया। एक-दो दिन बाद कुछ और घरों के सामने भी लोगों ने बल्ब टांग दिए। धीरे- धीरे पूरा मोहल्ला प्रकाश से जगमग हो उठा। एक छोटे से लड़के के एक कदम ने इतना बड़ा बदलाव ला दिया था कि धीरे-धीरे पूरा शहर ही जगमगा गया।

*कहानी का सबक- हमारा एक छोटा सा कदम एक बड़ी क्रांति का रूप लेने की ताकत रखता है। जैसा की गांधी जी ने कहा है , हमें खुद वो बदलाव बनना चाहिए जो हम दुनिया में देखना चाहते हैं, तभी हम अंधेरे में रोशनी की किरण फैला सकते हैं।


*8.बल्ब का आविष्कार

दुनिया के महान वैज्ञानिकों में से एक थॉमस अल्वा एडिसन बहुत ही मेहनती थे। बचपन में उन्हें यह कहकर स्कूल से निकाल दिया गया था कि वह मंदबुद्धि है। लेकिन उन्होंने कई महत्वपूर्ण आविष्कार किए, जिसमें बिजली का बल्ब प्रमुख है। उन्होंने बल्ब का आविष्कार करने के लिए एक हजार बार प्रयोग किए थे और तब कहीं जाकर उन्हें सफलता मिली थी। एक बार जब वह बल्ब बनाने के लिए कोई प्रयोग कर रहे थे। तभी एक व्यक्ति ने उनसे पूछा आपने करीब एक हजार प्रयोग किए, लेकिन आपके सारे प्रयोग असफल रहे। साथ ही, आपकी मेहनत बेकार हो गई, क्या आपको दुःख नहीं होता ?

एडिसन ने कहा, "मैं सोचता हूं कि मेरे एक हजार प्रयोग असफल हुए है। मेरी मेहनत बेकार नहीं गई, क्योंकि मैंने एक हजार प्रयोग करके यह पता लगाया है कि इन एक हजार तरीकों से बल्ब नहीं बनाया जा सकता। मेरा हर प्रयोग, बल्ब बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा है और मैं अपनी हर कोशिश के साथ एक कदम आगे बढ़ता हूं।"

आखिरकार एडिसन की मेहनत रंग लाई और उन्होंने बल्ब का आविष्कार करके पूरी दुनिया को रोशन कर दिया। यह थॉमस एडिसन का विश्वास ही था जिसने आशा की किरण को बुझने नहीं दिया और पूरी दुनिया को बल्ब देकर रोशन कर दिया।

*कहानी का सबक- किसी भी लक्ष्य की ओर बढ़ाया गया पहला कदम ही इंसान को सफलता तक ले जाता है। असफलता से न डरने वाले को ही सफलता मिलती है।


*9. लालटेन की रोशनी

एक बार एक शिष्य ने अपने गुरु से पूछा कि मैं अपने कठिनतम लक्ष्यों को कैसे प्राप्त कर सकता हूँ ? गुरुजी थोड़ा मुस्कुराए और कहा कि वह उसे आज रात उसके सवाल का जवाब देंगे।

शिष्य हर रोज शाम को नदी से पानी भरकर लाता था, ताकि रात को उसका इस्तेमाल हो सके। लेकिन, गुरुजी ने उसे उस दिन पानी लाने से मना कर दिया। रात होने पर शिष्य ने गुरुदेव को अपना सवाल याद दिलाया तो गुरुजी ने उसे एक लालटेन दी और फिर नदी से पानी लाने को कहा।

उस दिन अमावस्या थी और शिष्य भी कभी इतनी अंधेरी रात में बाहर नहीं गया था। अतः उसने कहा कि नदी तो यहां से बहुत दूर है और इस लालटेन के प्रकाश में इतना लम्बा सफर इस अंधेरे में कैसे तय करूंगा ? आप सुबह तक प्रतीक्षा कीजिए, मैं गागर सुबह भर लाऊंगा, गुरुजी ने कहा कि हमें पानी की जरूरत अभी है तो जाओ और गागर को भरकर लाओ।

गुरुजी ने कहा कि रोशनी तेरे हाथों में है और तू अंधेरे से डर रहा है। बस, फिर क्या था शिष्य लालटेन लेकर आगे बढ़ता रहा और नदी तक पहुंच गया और गागर भरकर लौट आया। शिष्य ने कहा कि मैं गागर भरकर ले आया हूँ, अब आप मेरे सवाल का जवाब दीजिए। तब गुरुजी ने कहा कि मैंने तो सवाल का जवाब दे दिया है, लेकिन शायद तुम्हें समझ में नहीं आया।

कहानी का सबक - गुरुजी ने समझाया कि यह दुनिया नदी के अंधियारे किनारे जैसी है, जिसमें हर एक क्षण लालटेन की रोशनी की तरह मिला हुआ है। अगर हम उस हर एक क्षण का इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ेंगे तो आनंदपूर्वक अपनी मंजिल तक पहुंच जाएंगे।